प्राचीन काल से हमारे देश में योग-ध्यान और तप का काफी महत्व है, ऋषि-मुनि, साधु-संत, देव पुरूषों ने ध्यान को अपने जीवन में उतारा और उससे मोक्ष प्राप्त किया, लेकिन अविष्कार के युग में प्रवेश करते हुए हमने हमारी प्राचीन विद्या को कम महत्व देना शुरू कर दिया, लेकिन अब जैसे-जैसे आधुनिक जीवन में बढ़ते तनाव, नकारात्मकता और जीवन में उथल-पुथल के बीच मन की शांति और विचारों में ठहराव लाने के लिए हम एक बार फिर से योग और ध्यान की तरफ लौटने लगे हैं। मन को विचार शून्य करने के लिए सबसे सरल और महत्वपूर्ण क्रिया है ध्यान। ध्यान यानि मन को किसी बिंदु ,व्यक्ति या किसी वस्तु पर एकाग्र करना और उसमे लीन हो जाना ध्यान है। ईश्वर की उपासना का सर्वोच्च तरीका ध्यान ही माना जाता है। वाह्य पूजा उपासना के प्रयोग के बाद जिस पद्धति से ईश्वर की उपलब्धि हो सकती है, वह ध्यान ही हो सकता है। केवल आंखें बंद करना ध्यान नहीं है, चक्रों पर ऊर्जा को संतुलित करना भी आवश्यक होता है। ध्यान एक प्रक्रिया है, जो कई चरणों के बाद हो पाता है। इन कई चरणों में पहले चक्रों को ठीक किया जाता है। ध्यान की सिद्धि के बाद व्यक्ति अनंत सत्ता का अनुभव कर पाता है, और इसे समाधि कहा जाता है। तमाम गुरुओं और आचार्यों ने ध्यान की अलग अलग विधियां बताई हैं, पर सबके उद्देश्य एक ही हैं – ईश्वर की अनुभूति। आज अधिकांश युवा, प्रोफेशनल काम के बढ़ते तनाव, जीवन और रिश्तों में हो रही उथल-पुथल के बीच खुद को सकारात्मक रखने के लिए ध्यान का सहारा ले रहे हैं, लेकिन कई बार सही जानकारी नहीं होने और सही मार्गदर्शन नहीं होने की वजह से उन्हें ध्यान का वह फल नहीं मिलता जैसा मिलना चाहिए। ध्यान केवल आंखें बंद कर बैठना मात्र नहीं है। ध्यान का अर्थ है हमारे अंदर की ऊर्जा को नीचे से ऊपर की ओर प्रवाहित करना जिससे हमारे सातों चक्र संतुलित हो और हमारे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो। ऐसे रिजल्ट पाने के लिए हमें सबसे पहले जानना होगा कि असल में ध्यान है क्या? क्योंकि किसी भी विषय की बैसिक जानकारी नहीं होगी तो आपके लिए उस विषय को समझना और उसमें उतरना काफी कठीन हो जाएगा। इसलिए सबसे पहले जानें कि ध्यान है क्या ? ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, अवेयरनेस, होश, साक्षी भाव और दृष्टा भाव। योग का अति महत्वपूर्ण अंग है ध्यान। यह योग का आठवां और एक मात्र ऐसो अंग है जिसे साधने से दूसरे सभी अंग स्वत: ही सधने लगते हैं, लेकिन योग के अन्य अंगों पर यह नियम लागू नहीं होता। ध्यान दो दुनिया के बीच खड़े होने की स्थिति है। ध्यान की परिभाषा : तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।। 3-2 ।। योगसूत्र अर्थात- जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है। ध्यान क्या है जानने के बाद जानने योग्य जरूरी बात यह है कि ध्यान का अर्थ क्या होता है, क्योंकि किसी भी विषय के अर्थ के बारे में जाने बिना उसे करना व्यर्थ है। ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है। क्रिया नहीं है ध्यान : बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रिया, भावातीत ध्यान क्रिया और सहज योग ध्यान। दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है। बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है। आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति। ध्यान का स्वरूप : हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है। हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है। आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है। ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है। ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है। कैसे करें ध्यान.. यह महत्वपूर्ण सवाल अक्सर पूछा जाता है। यह उसी तरह है कि हम पूछें कि कैसे श्वास लें, कैसे जीवन जीएं, कैसे जिंदा रहें या कैसे प्यार करें। आपसे सवाल पूछा जा सकता है कि क्या आप हंसना और रोना सीखते हैं या कि पूछते हैं कि कैसे रोएं या हंसे? सच मानो तो हमें कभी किसी ने नहीं सिखाया की हम कैसे पैदा हों। ओशो कहते हैं कि ध्यान हमारा स्वभाव है, जिसे हमने संसार की चकाचौंध के चक्कर में खो दिया है। ध्यान करने के लिए शुरूआती तत्व- 1.श्वास की गति, 2.मानसिक हलचल 3. ध्यान का लक्ष्य और 4.होशपूर्वक जीना। उक्त चारों पर ध्यान दें तो तो आप ध्यान करना सीख जाएंगे। > श्वास की गति का महत्व : योग में श्वास की गति को आवश्यक तत्व के रूप में मान्यता दी गई है। इसी से हम भीतरी और बाहरी दुनिया से जुड़े हैं। श्वास की गति तीन तरीके से बदलती है- 1.मनोभाव, 2.वातावरण, 3.शारीरिक हलचल। इसमें मन और मस्तिष्क के द्वारा श्वास की गति ज्यादा संचालित होती है। जैसे क्रोध और खुशी में इसकी गति में भारी अंतर रहता है।> श्वास की गति से ही हमारी आयु घटती और बढ़ती है। श्वास को नियंत्रित करने से सभी को नियंत्रित किया जा सकता है। इसीलिए श्वास क्रिया द्वारा ध्यान को केन्द्रित और सक्रिय करने में मदद मिलती है। ध्यान करते समय जब मन अस्थिर होकर भटक रहा हो उस समय श्वसन क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से धीरे-धीरे मन और मस्तिष्क स्थिर हो जाता है और ध्यान लगने लगता है। ध्यान करते समय गहरी श्वास लेकर धीरे-धीरे से श्वास छोड़ने की क्रिया से जहां शरीरिक और मानसिक लाभ मिलता है, वहीं ध्यान में गति मिलती है। मानसिक हलचल : ध्यान करने या ध्यान में होने के लिए मन और मस्तिष्क की गति को समझना जरूरी है। गति से तात्पर्य यह कि क्यों हम खयालों में खो जाते हैं, क्यों विचारों को ही सोचते रहते हैं या कि ?विचार करते रहते हैं या कि धुन, कल्पना आदि में खो जाते हैं। इस सबको रोकने के लिए ही कुछ उपाय हैं- पहला आंखें बंदकर पुतलियों को स्थिर करें। दूसरा जीभ को जरा भी ना हिलाएं उसे पूर्णत: स्थिर रखें। तीसरा जब भी किसी भी प्रकार का विचार आए तो तुरंत ही सोचना बंदकर सजग हो जाएं। इसी जबरदस्ती न करें बल्कि सहज योग अपनाएं। ध्यान और लक्ष्य : निराकार ध्यान- ध्यान करते समय देखने को ही लक्ष्य बनाएं। दूसरे नंबर पर सुनने को रखें। ध्यान दें, गौर करें कि बाहर जो ढेर सारी आवाजें हैं उनमें एक आवाज ऐसी है जो सतत जारी रहती है- जैसे प्लेन की आवाज जैसी आवाज, फेन की आवाज जैसी आवाज या जैसे कोई कर रहा है ॐ का उच्चारण। अर्थात सन्नाटे की आवाज। इसी तरह शरीर के भीतर भी आवाज जारी है। ध्यान दें। सुनने और बंद आंखों के सामने छाए अंधेरे को देखने का प्रयास करें। इसे कहते हैं निराकार ध्यान। आकार ध्यान- आकार ध्यान में प्रकृति और हरे-भरे वृक्षों की कल्पना की जाती है। यह भी कल्पना कर सकते हैं कि किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हैं और मस्त हवा चल रही है। यह भी कल्पना कर सकते हैं कि आपका ईष्टदेव आपके सामने खड़ा हैं। ‘कल्पना ध्?यान’ को इसलिए करते हैं ताकि शुरूआत में हम मन को इधर उधर भटकाने से रोक पाएं। होशपूर्वक जीना: क्या सच में ही आप ध्यान में जी रहे हैं? ध्यान में जीना सबसे मुश्किल कार्य है। व्यक्ति कुछ क्षण के लिए ही होश में रहता है और फिर पुन: यंत्रवत जीने लगता है। इस यंत्रवत जीवन को जीना छोड़ देना ही ध्यान है। जैसे की आप गाड़ी चला रहे हैं, लेकिन क्या आपको इसका पूरा पूरा ध्यान है कि ‘आप’ गाड़ी चला रहे हैं। आपका हाथ कहां हैं, पैर कहां है और आप देख कहां रहे हैं। फिर जो देख रहे हैं पूर्णत: होशपूर्वक है कि आप देख रहे हैं वह भी इस धरती पर। कभी आपने गूगल अर्थ का इस्तेमाल किया होगा। उसे आप झूम इन और झूम आॅउट करके देखें। बस उसी तरह अपनी स्थिति जानें। कोई है जो बहुत ऊपर से आपको देख रहा है। शायद आप ही हों। कैसे करें ध्यान की तैयारी यदि आपने ध्यान करने का पक्का मन बना ही लिया है और इसे नियमित करने का संकल्प ले ही लिया है तो फिर आप अब ध्यान की तैयारी करें। इससे पहले हम ‘ध्यान की शुरूआत’ और ‘कैसे करें ध्यना’ पर लिख चुके हैं। नीचे इस संबंध में लिंक देखें। यहां प्रस्तुत है ध्यान की तैयारी के संबंध में सामान्य जानकारी। 1. बेहतर स्थान : ध्यान की तैयारी से पूर्व आपको ध्यान करने के स्थान का चयन करना चाहिए। ऐसा स्थान जहां शांति हो और बाहर का शोरगुल सुनाई न देता हो। साथ ही वह खुला हुआ और हरा-भरा हो। आप ऐसा माहौल अपने एक रूम में भी बना सकते हो। > जरूरी यह है कि आप शोरगुल और दम घोंटू वातावरण से बचे और शांति तथा सकून देने वाले वातारवण में रहे जहां मन भटकता न हो। यदि यह सब नहीं हैं तो ध्यान किसी ऐसे बंद कमरे में भी कर सकते हैं जहां उमस और मच्छर नहीं हो बल्कि ठंडक हो और वातावरण साफ हो। आप मच्छरदारी और एक्झास फेन का स्तेमाल भी कर सकते हैं।> 2. वातावण हो सुगंधित : सुगंधित वातावरण को ध्यान की तैयारी में शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सुगंध या इत्र का इस्तेमाल कर सकते हैं या थोड़े से गुड़ में घी तथा कपूर मिलाकर कंडे पर जला दें कुछ देर में ही वातावरण ध्यान लायक बन जाएगा। 3. ध्यान की बैठक : ध्यान के लिए नर्म और मुलायम आसान होना चाहिए जिस पर बैठकर आराम और सूकुन का अनुभव हो। बहुत देर तक बैठे रहने के बाद भी थकान या अकड़न महसूस न हो। इसके लिए भूमि पर नर्म आसन बिछाकर दीवार के सहारे पीठ टिकाकर भी बैठ सकते हैं अथवा पीछे से सहारा देने वाली आराम कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं। आसन में बैठने का तरीका ध्यान में काफी महत्व रखता रखता है। ध्यान की क्रिया में हमेशा सीधा तनकर बैठना चाहिए। दोनों पैर एक दूसरे पर क्रास की तरह होना चाहिए या आप सिद्धासन में भी बैठ सकते हैं। 4.समय : ध्यान के लिए एक निश्चित समय बना लेना चाहिए इससे कुछ दिनों के अभ्यास से यह दैनिक क्रिया में शामिल हो जाता है फलत ध्यान लगाना आसान हो जाता है। 5. सावधानी : ध्यान में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस क्रिया में किसी प्रकार का तनाव नहीं हो और आपकी आंखें बंद, स्थिर और शांत हों तथा ध्यान भृकुटी पर रखें। खास बात की आप ध्यान में सोएं नहीं बल्कि साक्षी भाव में रहें। क्या होता है ध्यान से? सवाल पूछा जा सकता है कि क्या होता है ध्यान से? ध्यान क्यों करें? आप यदि सोना बंद कर दें तो क्या होगा? नींद आपको फिर से जिंदा करती है। उसी तरह ध्यान आपको इस विराट ब्रह्मांड के प्रति सजग करता है। वह आपके आसपास की उर्जा को बढ़ाता है कहना चाहिए की आपकी रोशनी को बढ़ाकर आपको आपके होने की स्थिति से अवगत कराता है। अन्यथा लोगों को मरते दम तक भी यह ध्यान नहीं रहता कि वे जिंदा भी थे। ध्यान से व्यक्ति को बेहतर समझने और देखने की शक्ति मिलती है। साक्षी भाव में रहकर ही आप आत्मिकरूप से स्ट्रांग बन सकते हो। यह आपके शरीर, मन और आपके (आत्मा) के बीच लयात्मक संबंध बनाता है। दूसरों की अपेक्षा आपके देखने और सोचने का दृष्टिकोण एकदम अलग होगा है। ज्यादातर लोग पशु स्तर पर ही सोचते, समझते और भाव करते हैं। उनमें और पशु में कोई खास फर्क नहीं रहता। > बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी गुस्से से भरा, ईर्ष्या, लालच, झूठ और कामुकता से भरा हो सकता है। लेकिन ध्यानी व्यक्ति ही सही मायने में यम और नियम को साध लेता है। > इसके अलावा ध्यान योग का महत्वपूर्ण तत्व है जो तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है। ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केन्द्रित होती है। उर्जा केन्द्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल बढ़ता है। ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। वर्तमान में हमारे सामने जो लक्ष्य है उसे प्राप्त करने की प्रेरणा और क्षमता भी ध्यान से प्राप्त होती है। आप मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में वह नहीं पा सकते जो ध्यान आपको दे सकता है। ध्यान ही धर्म का सत्य है बाकी सभी तर्क और दर्शन की बाते हैं जो सत्य नहीं भी हो सकती है। सभी महान लोगों ने ध्यान से ही सब कुछ पाया है। ध्यान की विधियां ध्यान करने की अनेकों विधियों में एक विधि यह है कि ध्यान किसी भी विधि से किया नहीं जाता, हो जाता है। ध्यान की योग और तंत्र में हजारों विधियां बताई गई है। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा साधु संगतों में अनेक विधि और क्रियाओं का प्रचलन है। विधि और क्रियाएं आपकी शारीरिक और मानसिक तंद्रा को तोड़ने के लिए है जिससे की आप ध्यानपूर्ण हो जाएं। यहां प्रस्तुत है ध्यान की सरलतम विधियां, लेकिन चमत्कारिक। विशेष : ध्यान की हजारों विधियां हैं। भगवान शंकर ने माँ पार्वती को 112 विधियां बताई थी जो ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ में संग्रहित हैं। इसके अलावा वेद, पुराण और उपनिषदों में ढेरों विधियां है। संत, महात्मा विधियां बताते रहते हैं। उनमें से खासकर ‘ओशो रजनीश’ ने अपने प्रवचनों में ध्यान की 150 से ज्यादा विधियों का वर्णन किया है। > 1- सिद्धासन में बैठकर सर्वप्रथम भीतर की वायु को श्वासों के द्वारा गहराई से बाहर निकाले। अर्थात रेचक करें। फिर कुछ समय के लिए आंखें बंदकर केवल श्वासों को गहरा-गहरा लें और छोड़ें। इस प्रक्रिया में शरीर की दूषित वायु बाहर निकलकर मस्तिष्?क शांत और तन-मन प्रफुल्लित हो जाएगा। ऐसा प्रतिदिन करते रहने से ध्?यान जाग्रत होने लगेगा।> 2- सिद्धासन में आंखे बंद करके बैठ जाएं। फिर अपने शरीर और मन पर से तनाव हटा दें अर्थात उसे ढीला छोड़ दें। चेहरे पर से भी तनाव हटा दें। बिल्कुल शांत भाव को महसूस करें। महसूस करें कि आपका संपूर्ण शरीर और मन पूरी तरह शांत हो रहा है। नाखून से सिर तक सभी अंग शिथिल हो गए हैं। इस अवस्था में 10 मिनट तक रहें। यह काफी है साक्षी भाव को जानने के लिए। 3- किसी भी सुखासन में आंखें बंदकर शांत व स्थिर होकर बैठ जाएं। फिर बारी-बारी से अपने शरीर के पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक अवलोकन करें। इस दौरान महसूस करते जाएं कि आप जिस-जिस अंग का अलोकन कर रहे हैं वह अंग स्वस्थ व सुंदर होता जा रहा है। यह है सेहत का रहस्य। शरीर और मन को तैयार करें ध्यान के लिए। 4. चौथी विधि क्रांतिकारी विधि है जिसका इस्तेमाल अधिक से अधिक लोग करते आएं हैं। इस विधि को कहते हैं साक्षी भाव या दृष्टा भाव में रहना। अर्थात देखना ही सबकुछ हो। देखने के दौरान सोचना बिल्कुल नहीं। यह ध्यान विधि आप कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं। सड़क पर चलते हुए इसका प्रयोग अच्छे से किया जा सकता है। देखें और महसूस करें कि आपके मस्तिष्क में ‘विचार और भाव’ किसी छत्ते पर भिनभिना रही मधुमक्खी की तरह हैं जिन्हें हटाकर ‘मधु’ का मजा लिया जा सकता है। उपरोक्त तीनों ही तरह की सरलतम ध्यान विधियों के दौरान वातावरण को सुगंध और संगीत से तरोताजा और आध्यात्मिक बनाएं। चौथी तरह की विधि के लिए सुबह और शाम के सुहाने वातावरण का उपयोग करें। ध्यान का लाभ हम ध्यान है। सोचो की हम क्या है- आंख? कान? नाक? संपूर्ण शरीर? मन या मस्तिष्क? नहीं हम इनमें से कुछ भी नहीं। ध्यान हमारे तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है। स्वयं को पाना है तो ध्यान जरूरी है। वहीं एकमात्र विकल्प है। आत्मा को जानना : ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती है। आत्मिक शक्ति से मानसिक शांति की अनुभूति होती है। मानसिक शांति से शरीर स्वस्थ अनुभव करता है। ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केंद्रित होती है। उर्जा केंद्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल मिलता है। > ध्यान से विजन पॉवर बढ़ता है तथा व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है। ध्यान से सभी तरह के रोग और शोक मिट जाते हैं। ध्यान से हमारा तन, मन और मस्तिष्क पूर्णत: शांति, स्वास्थ्य और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।> क्या होगा ध्यान से : हर तरह का भय जाता रहेगा। चिंता और चिंतन से उपजे रोगों का खात्मा होगा। शरीर में शांति होगी तो स्वस्थ अनुभव करेंगे। कार्य और व्यवहार में सुधार होगा। रिश्तों में तनाव की जगह प्रेम होगा। दृष्टिकोण सकारात्मक होगा। सफलता के बारे में सोचने मात्र से ही सफलता आपके नजदीक आने लगेगी। ध्यान का महत्व : ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। शुद्ध रूप से देखने की क्षमता बढ़ने से विवेक जाग्रत होगा। विवेक के जाग्रत होने से होश बढ़ेगा। होश के बढ़ने से मृत्यु काल में देह के छूटने का बोध रहेगा। देह के छूटने के बाद जन्म आपकी मुट्ठी में होगा। यही है ध्यान का महत्व। सिर्फ तुम : खुद तक पहुंचने का एक मात्र मार्ग ध्?यान ही है। ध्यान को छोड़कर बाकी सारे उपाय प्रपंच मात्र है। यदि आप ध्यान नहीं करते हैं तो आप स्वयं को पाने से चूक रहे हैं। स्वयं को पाने का अर्थ है कि हमारे होश पर भावना और विचारों के जो बादल हैं उन्हें पूरी तरह से हटा देना और निर्मल तथा शुद्ध हो जाना। ज्ञानीजन कहते हैं कि जिंदगी में सब कुछ पा लेने की लिस्ट में सबमें ऊपर स्वयं को रखो। मत चूको स्वयं को। 70 साल सत्तर सेकंड की तरह बीत जाते हैं। योग का लक्ष्य यह है कि किस तरह वह तुम्हारी तंद्रा को तोड़ दे इसीलिए यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार और धारणा को ध्यान तक पहुँचने की सीढ़ी बनाया है। ध्यान के लाभ जानें : ध्यान से मानसिक लाभ- शोर और प्रदूषण के माहौल के चलते व्यक्ति निरर्थक ही तनाव और मानसिक थकान का अनुभव करता रहता है। ध्यान से तनाव के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। निरंतर ध्यान करते रहने से जहां मस्तिष्क को नई उर्जा प्राप्त होती है वहीं वह विश्राम में रहकर थकानमुक्त अनुभव करता है। गहरी से गहरी नींद से भी अधिक लाभदायक होता है ध्यान। विशेष : आपकी चिंताएं कम हो जाती हैं। आपकी समस्याएं छोटी हो जाती हैं। ध्यान से आपकी चेतना को लाभ मिलता है। ध्यान से आपके भीतर सामंजस्यता बढ़ती है। जब भी आप भावनात्मक रूप से अस्थिर और परेशान हो जाते हैं, तो ध्यान आपको भीतर से स्वच्छ, निर्मल और शांत करते हुए हिम्मत और हौसला बढ़ाता है। ध्यान से शरीर को मिलता लाभ- ध्यान से जहां शुरूआत में मन और मस्तिष्क को विश्राम और नई उर्जा मिलती है वहीं शरीर इस ऊर्जा से स्वयं को लाभांवित कर लेता है। ध्यान करने से शरीर की प्रत्येक कोशिका के भीतर प्राण शक्ति का संचार होता है। शरीर में प्राण शक्ति बढ़ने से आप स्वस्थ अनुभव महसूस करते हैं। विशेष : ध्यान से उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है। सिरदर्द दूर होता है। शरीर में प्रतिरक्षण क्षमता का विकास होता है, जोकि किसी भी प्रकार की बीमारी से लड़ने में महत्वपूर्ण है। ध्यान से शरीर में स्थिरता बढ़ती है। यह स्थिरता शरीर को मजबूत करती है। आध्यात्मिक लाभ- जो व्यक्ति ध्यान करना शुरू करते हैं, वह शांत होने लगते हैं। यह शांति ही मन और शरीर को मजबूती प्रदान करती है। ध्यान आपके होश पर से भावना और विचारों के बादल को हटाकर शुद्ध रूप से आपको वर्तमान में खड़ा कर देता है। ध्यान से काम, क्रोध, मद, लोभ और आसक्ति आदि सभी विकार समाप्त हो जाते हैं। निरंतर साक्षी भाव में रहने से जहां सिद्धियों का जन्म होता है वहीं सिद्धियों में नहीं उलझने वाला व्यक्ति समाधी को प्राप्त लेता है। कैसे उठाएं ध्यान से लाभ : ध्यान से भरपूर लाभ प्राप्त करने के लिए नियमित अभ्यास करना आवश्यक है। ध्यान करने में ज्यादा समय की जरूरत नहीं मात्र पांच मिनट का ध्यान आपको भरपूर लाभ दे सकता है बशर्ते की आप नियमित करते हैं। यदि ध्यान आपकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है तो यह आपके दिन का सबसे बढ़िया समय बन जाता है। आपको इससे आनंद की प्राप्ति होती है। फिर आप इसे पांच से दस मिनट तक बढ़ा सकते हैं। पांच से दस मिनट का ध्यान आपके मस्तिष्क में शुरूआत में तो बीज रूप से रहता है, लेकिन 3 से 4 महिने बाद यह वृक्ष का आकार लेने लगता है और फिर उसके परिणाम आने शुरू हो जाते हैं। ध्यान की शुरूआत विचार हमारा शत्रु है- यूजी कृष्णमूर्ति ध्यान की शुरूआत के पूर्व की क्रिया- ‘मैं क्यों सोच रहा हूं’ इस पर ध्यान दें।’ हमारा ‘विचार’ भविष्य और अतीत की हरकत है। विचार एक प्रकार का विकार है। वर्तमान में जीने से ही जागरूकता जन्मती है। भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है। स्टेप- 1 : ओशो के अनुसार ध्यान शुरू करने से पहले आपका रेचन हो जाना जरूरी है अर्थात आपकी चेतना (होश) पर छाई धूल हट जानी जरूरी है। इसके लिए चाहें तो कैथार्सिस या योग का भस्त्रिका, कपालभाति प्राणायाम कर लें। आप इसके अलावा अपने शरीर को थकाने के लिए और कुछ भी कर सकते हैं। > स्टेप 1 : शुरूआत में शरीर की सभी हलचलों पर ध्यान दें और उसका निरीक्षण करें। बाहर की आवाज सुनें। आपके आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर गौर करें। उसे ध्यान से सुनें।> स्टेप 3 : फिर धीरे-धीरे मन को भीतर की ओर मोड़े। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर चुपचाप गौर करें। इस गौर करने या ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही चित्त स्थिर होकर शांत होने लगेगा। भीतर से मौन होना ध्यान की शुरूआत के लिए जरूरी है। स्टेप 4 : अब आप सिर्फ देखने और महसूस करने के लिए तैयार हैं। जैसे-जैसे देखना और सुनना गहराएगा आप ध्यान में उतरते जाएंगे। ध्यान की शुरूआती विधि : प्रारंभ में सिद्धासन में बैठकर आंखें बंद कर लें और दाएं हाथ को दाएं घुटने पर तथा बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखकर, रीढ़ सीधी रखते हुए गहरी श्वास लें और छोड़ें। सिर्फ पांच मिनट श्वासों के इस आवागमन पर ध्यान दें कि कैसे यह श्वास भीतर कहां तक जाती है और फिर कैसे यह श्वास बाहर कहां तक आती है। पूर्णत: भीतर कर मौन का मजा लें। मौन जब घटित होता है तो व्यक्ति में साक्षी भाव का उदय होता है। सोचना शरीर की व्यर्थ क्रिया है और बोध करना मन का स्वभाव है। ध्यान की अवधि : उपरोक्त ध्यान विधि को नियमित 30 दिनों तक करते रहें। 30 दिनों बाद इसकी समय अवधि 5 मिनट से बढ़ाकर अगले 30 दिनों के लिए 10 मिनट और फिर अगले 30 दिनों के लिए 20 मिनट कर दें। शक्ति को संवरक्षित करने के लिए 90 दिन काफी है। इसे जारी रखें। सावधानी : ध्यान किसी स्वच्छ और शांत वातावरण में करें। ध्यान करते वक्त सोना मना है। ध्यान करते वक्त सोचना बहुत होता है। लेकिन यह सोचने पर कि ‘मैं क्यों सोच रहा हूं’ कुछ देर के लिए सोच रुक जाती है। सिर्फ श्वास पर ही ध्यान दें और संकल्प कर लें कि 20 मिनट के लिए मैं अपने दिमाग को शून्य कर देना चाहता हूं। अंतत: ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ सकते है। ध्यान और विचार : जब आंखें बंद करके बैठते हैं तो अक्सर यह शिकायत रहती है कि जमाने भर के विचार उसी वक्त आते हैं। अतीत की बातें या भविष्य की योजनाएं, कल्पनाएं आदि सभी विचार मक्खियों की तरह मस्तिष्क के आसपास भिनभिनाते रहते हैं। इससे कैसे निजात पाएं? माना जाता है कि जब तक विचार है तब तक ध्यान घटित नहीं हो सकता। अब कोई मानने को भी तैयार नहीं होता कि निर्विचार भी हुआ जा सकता है। कोशिश करके देखने में क्या बुराई है। ओशो कहते हैं कि ध्यान विचारों की मृत्यु है। आप तो बस ध्यान करना शुरू कर दें। जहां पहले 24 घंटे में चिंता और चिंतन के 30-40 हजार विचार होते थे वहीं अब उनकी संख्या घटने लगेगी। जब पूरी घट जाए तो बहुत बड़ी घटना घट सकती है। मोक्ष क्या है… मोक्ष का अर्थ होता है मुक्ति। अधिकतर लोग समझते हैं कि मोक्ष का अर्थ जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति। बहुत से लोग मानते हैं कि श्राद्ध या तर्पण करने से हमारे पूर्वजों को मोक्ष मिल जाएगा। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि अच्छे कर्म करने से मिलता है मोक्ष। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष के बाद व्यक्ति शून्य हो जाता है, अंधकार में लीन हो जाता है या संसार से अलग हो जाता है। आओ, जानते हैं कि क्या यह सही है… मोक्ष की धारणा वैदिक ऋषियों से आई है। भगवान बुद्ध को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए अपना पूरा जीवन साधना में बिताना पड़ा। महावीर को कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करनी पड़ी और ऋषियों को समाधि (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए योग और ध्यान की कठिन साधनाओं को पार करना पड़ता है। मोक्ष मिलना आसान नहीं। दुनिया में सब कुछ आसानी से मिल सकता है, लेकिन खुद को पाना आसान नहीं। खुद को पाने का मतलब है कि सभी तरह के बंधनों से मुक्ति। बंधन क्या है? यह समझना जरूरी है। भारतीय धर्मों को छोड़कर विदेशी धर्मों में मोक्ष की धारणा भिन्न है। > मौत के बाद नहीं मिलता है मोक्ष : यह आम धारणा है कि मरकर मिल जाती है मुक्ति। मरकर इस जन्म के कष्टों से मिल जाती होगी मुक्ति, लेकिन फिर से जन्म लेकर व्यक्ति को नए सांसारिक चक्र में पड़ना होता है। प्रभु की कृपा से व्यक्ति के कष्ट दूर हो सकते हैं, दूसरा जन्म मिल सकता है, लेकिन मोक्ष नहीं। मोक्ष के लिए व्यक्ति को खुद ही प्रयास करने होते हैं। प्रभु उन प्रयासों में सहयोग कर सकते हैं।> मोक्ष क्या है : मोक्ष एक ऐसी दशा है जिसे मनोदशा नहीं कह सकते। इस दशा में न मृत्यु का भय होता है न संसार की कोई चिंता। सिर्फ परम आनंद। परम होश। परम शक्तिशाली होने का अनुभव। मोक्ष समयातीत है जिसे समाधि कहा जाता है। मोक्ष या समाधि का अर्थ अणु-परमाणुओं से मुक्त साक्षीत्व पुरुष हो जाना। तटस्थ या स्थितप्रज्ञ अर्थात परम स्थिर, परम जाग्रत हो जाना। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाना। इसी में परम शक्तिशाली होने का ‘बोध’ छुपा है, जहां न भूख है न प्यास, न सुख, न दुख, न अंधकार न प्रकाश, न जन्म है, न मरण और न किसी का प्रभाव। हर तरह के बंधन से मुक्ति। परम स्वतंत्रता अतिमानव या सुपरमैन। संपूर्ण समाधि का अर्थ है मोक्ष अर्थात प्राणी का जन्म और मरण के चक्र से छुटकर स्वयंभू और आत्मवान हो जाना है। समाधि चित्त की सूक्ष्म अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती। मोक्ष का अर्थ सिर्फ जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हो जाना ही नहीं है। बहुत से भूत-प्रेत और ?देव आत्माएं हैं जो हजारों या सैकड़ों वर्षों तक जन्म नहीं लेती लेकिन उनमें वह सभी वृत्तियां विद्यमान रहती है जो मानव में होती है। भूख, प्यास, सत्य असत्य, धर्म अधर्म, न्याय अन्याय आदि। सिद्धि प्राप्त करना मोक्ष या समाधि प्राप्त करना नहीं है। यह ईश्वर से साक्षात्कार करना भी नहीं है। ध्यान को छोड़कर संसार में अभी तक ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा गया जिससे समाधि या मोक्ष पाया जा सके। लोग भक्ति की बात जरूर करते हैं लेकिन भक्ति भी ध्यान का एक प्रकार है। अब सवाल यह उठता है कि कौन सी और किस की भक्ति? यह खोजना जरूरी है। गीता में जिन मार्गो की चर्चा की गई है वह सभी मार्ग साक्षित्व ध्यान तक ले जाकर छोड़ देते हैं। योग के सभी आसन ध्यान लगाने के लिए होते हैं।
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